रोजाना Hospital पहुंच रहे ‘नोमोफोबिया’ के मरीज
नई दिल्ली। मनोचिकित्सकों के अनुसार, अब रोजाना ऐसे मरीज अस्पताल पहुंच रहे हैं, जो थोड़ी देर के लिए भी फोन से दूर रहने पर बेचैनी, घबराहट, तनाव या चिड़चिड़ापन महसूस करते हैं‘नोमोफोबिया’ शब्द “नो-मोबाइल-फोबिया” से बना है, जिसका अर्थ है मोबाइल फोन के बिना रहने का भय। समाज में एक नई मानसिक समस्या तेजी से फैल रही है, जिसका नाम है नोमोफोबिया यानी मोबाइल फोन से दूरी का डर। यह समस्या अब केवल युवाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि स्कूल-कॉलेज के छात्रों, नौकरीपेशा लोगों और गृहिणियों में भी तेजी से देखी जा रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक, कोविड-19 महामारी के बाद से लोगों का स्क्रीन टाइम कई गुना बढ़ गया, जिससे नींद न आना, ध्यान केंद्रित न कर पाना और सामाजिक रूप से अलग-थलग पड़ने जैसी मानसिक परेशानियां बढ़ रही हैं। साइकोलॉजिस्ट का कहना है कि औसतन एक व्यक्ति दिन में करीब 7 घंटे मोबाइल पर बिताता है, जो धीरे-धीरे मानसिक निर्भरता में बदल रहा है। कुछ लोग मोबाइल की अनुपस्थिति में हाइपरएक्टिव या डिप्रेसिव हो जाते हैं। कई बच्चों में यह लत इतनी गहरी हो चुकी है कि जब उनसे फोन छीना जाता है, तो वे गुस्से या हिंसक व्यवहार तक करने लगते हैं। मनोचिकित्सक बताते हैं कि मोबाइल की लत न केवल मानसिक बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डाल रही है। इससे सिरदर्द, आंखों में जलन, नींद की कमी, पेट दर्द, और दिल की धड़कन बढ़ने जैसी समस्याएं आम होती जा रही हैं।
बच्चे अब खेलकूद और आउटडोर गतिविधियों से दूर होते जा रहे हैं और सोशल मीडिया या ऑनलाइन गेम्स में उलझे रहते हैं, जिससे उनका सामाजिक और शारीरिक विकास प्रभावित हो रहा है। विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि नोमोफोबिया भले ही अभी औपचारिक रूप से गंभीर बीमारी की श्रेणी में शामिल न हो, लेकिन इसके लगातार बढ़ते मामले यह संकेत दे रहे हैं कि डिजिटल निर्भरता अब मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक वास्तविक खतरा बन चुकी है। विशेषज्ञों का सुझाव है कि मोबाइल का उपयोग केवल आवश्यकता पड़ने पर करें। सोने से पहले फोन न चलाएं, नोटिफिकेशन बंद रखें ताकि दिमाग को लगातार अलर्ट न मिले। रोज कुछ समय बिना मोबाइल के बिताने की आदत डालें जैसे परिवार से बातचीत, वॉक या कोई हॉबी अपनाना। बच्चों को मोबाइल की जगह आउटडोर गेम्स की ओर प्रेरित करें।
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