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  • Thursday, 30 October 2025
Afghanistan और पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता फेल होने से चीन के माथे पर चिंता की लकीर

Afghanistan और पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता फेल होने से चीन के माथे पर चिंता की लकीर

इस्तांबुल। तुर्की के इस्तांबुल में चल रही अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच शांति वार्ता फिर नाकाम होती दिख रही है। दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच लिखित गारंटी, शरणार्थी वापसी और सीमा सुरक्षा को लेकर बातचीत बेनतीजा रही। रिपोर्ट के मुताबिक, तालिबान नेतृत्व ने पाकिस्तान की शर्तों को ‘अविश्वास पर आधारित’ बताकर खारिज कर दिया। सूत्रों के अनुसार, इस विफलता का बड़ा कारण पाकिस्तान की बढ़त हासिल करने की नीति और तालिबान पर गहराता शक हैं। खुफिया सूत्रों ने बताया कि पाकिस्तान चाहता था कि अफगानिस्तान लिखित में यह भरोसा दें कि अफगान धरती का इस्तेमाल तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) की ओर से नहीं होगा। लेकिन तालिबान सरकार ने इस शर्त को अपनी संप्रभुता पर चोट बताया और साफ इंकार कर दिया। अफगानिस्तान ने आरोप लगाया कि पाकिस्तान 15 लाख से ज़्यादा अवैध अफगान शरणार्थियों की जबरन वापसी कराकर मानवीय संकट खड़ा कर रहा है। तालिबान ने कहा कि इस्लामाबाद ‘शरणार्थियों के मुद्दे को राजनीतिक ब्लैकमेल’ के औजार की तरह इस्तेमाल कर रहा है। इसी दौरान रविवार को खैबर पख्तूनख्वा सीमा पर फिर झड़पें हुईं, जिसमें 5 पाकिस्तानी सैनिक और 25 उग्रवादी मारे गए।

पाकिस्तान ने खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में पड़ोसी देश अफगानिस्तान से घुसपैठ की दो बड़ी कोशिशों को नाकाम कर चार आत्मघाती हमलावरों सहित 25 आतंकवादियों को मार गिराया। सेना की मीडिया शाखा ने बताया कि पांच सैनिक भी मारे गए। वहीं तालिबान और पाकिस्तान के बीच सहमति नहीं बनने से चीन चिंतित है, क्योंकि असफल बातचीत सीपीईसी–अफगानिस्तान एक्सटेंशन कॉरिडोर के लिए झटका। पाकिस्तान का कहना है कि तालिबान सरकार उग्रवादियों पर काबू नहीं कर पा रही, जबकि काबुल का जवाब है कि पाकिस्तान को अपनी सुरक्षा खुद संभालनी चाहिए। खुफिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि अक्टूबर के मध्य से टीटीपी गुटों की सीमा पार आवाजाही फिर शुरू हो गई है। यह आवाजाही खोस्त और पक्तिका रूट से हो रही है। यही नहीं, वार्ता के बाद संयुक्त बयान तक जारी न हो पाने से तुर्की की मध्यस्थ छवि पर भी असर पड़ा है। वहीं दूसरी तरफ तुर्की के राजनयिकों ने स्वीकार किया कि ‘दोनों पक्षों ने इस्तांबुल को सिर्फ प्रतीकात्मक मंच’ की तरह इस्तेमाल किया, ताकि मुस्लिम भाईचारे का दिखावा किया जा सके।

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